Saturday, October 08, 2011

आज  बरसों  बाद  उन  लम्हों   का   ज़िक्र  मन  में  कोई  एहसास  नहीं  जगाता  , न  ही  उन्हें  याद  रखने  की  ज़रुरत महसूस  होती  है  , याद  आते  हैं  ऐसा  भी  नहीं  बस  एक  ख्याल  की  तरह  कभी कभी  अंधेरों  को  चीरती  हुई  सामने  आ खड़ी  होती  है  ,  उन लम्हों  के  साथ  अब  कोई  संवेदना  नहीं जुडी  है  मगर  तजुर्बा  जुदा  है ,,,अनुभव  जिनके  बगैर  ये ज़िन्दगी  वही  नहीं  होती  जो  आज  है  , मेरी  शक्शियत वही  नहीं  होती  जो  आज  है  , मैं  वही  इंसान  नहीं  होती  जो  आज  हूँ .
कभी  कभी  यकीन  नहीं  होता  की  वो  ज़िन्दगी  भी  मेरी  ही  थी  , मैंने  खुद  जिया  था , अब  सिर्फ   एक  सपने  की  तरह  आंखों  के  सामने  से  गुज़र  जाता  है   और  एक  ठंडी  सांस  के  साथ  रुखसत  हो  लेता  है  . कुछ  पल  को  ये  ख्याल  जीने  का  सहारा  दे  जाते  हैं  और  फिर  हकीकत  की  चोट  सच्छी  सामने  ले  आती  है  .
कितना  कुछ  था  उस  ज़िन्दगी  में  जो  कभी  मेरी   थी  ..एक  परिवार  जहाँ  माँ  थी  , जो  मुझसे  कोई शिकायत  नहीं  करती  थी  सिर्फ देती  थी  , और  मेरी  शिकायत  कभी  कम  नहीं  होती  थी  , एक  पिता  थे   जिनसे  मैं  लड़  लिया  करती थी  और ये  भी  नहीं  समझती  थी  की उन्हें  बुरा  भी लगता  होगा , एक  भाई  था  जिसे  मैं  अक्सर  बात  चीत  बंद  किया  करती  थी , गरज  जाती  थी   और  वो  फिर  भी  मनाया  ही  करता  था ...अज  की  ज़िन्दगी  कितनी  अकेली  है  ....माँ  का  साया  उठ  चूका  है  ,एक  ऐसी  कमी  जिसके  साथ  जीना  सीख  लिया है  ....बस  .....पिता  हैं  पर  वो लड़ाई  , वो  जिद  नहीं  ....भाई  है  पर  रूठना  मानना  नहीं  होता  ...हम  सब  बड़े  हो  गए  ...ज़िम्मेदार  हो गए  हैं ....माँ  के  जाते  ही  सब  के  सर  पे  एक  अनदेखी ज़िम्मेदारी  आ  गयी  और  बचपना  कहीं  खो  गया  ....हंसी  एक  फासला  तय  करके  आती  है  ....अब  हम  बड़े  हो  गए  हैं  ....उन  लम्हों  के  परे  हो   गए  हैं ........
Time moving swiftly,
And I
a mute spectator
watching
God's play
With Silent obedience....

Monday, October 03, 2011

.साक्षी

मैं साक्षी हूँ उस एक एक घटना की जो होना चाहिए था ...और उस एक एक घटना की जो नहीं होना चाहिए था , पर मेरे हाथ में कुछ भी नहीं था .....मैं किन्कर्ताव्यविमूध थी.... हूँ , मैं असमर्थ थी उन आंसुओं को पोंछने में , उन सिसकियों को रोकने में और उन परेशानियों को मिटाने में जो एक घर में अजनबियों के बीच रहते हुए अकेले में  छलक पड़ते .....जो अपने होकर भी बिलकुल अनजाने थे .....बिलकुल अनजाने और मैं सिर्फ साक्षी थी ......साक्षी

सपने

इन्द्रधनुष के पास
बादलों के पार
तारों पे चलने के
पांखी जैसे उड़ने के
सपने
रोज़ आते हैं

कुछ पूरे
कुछ अधूरे
कहीं भी
कभी भी
ये सपने रोज़ क्यूँ आते हैं?

हंसाते
रुलाते
गुदगुदाते
टूटते - बिखरते
समझाते
उलझाते
बहलाते
कहीं ठहरते
कभी भाग जाते
फिर भी
रोज़ आते हैं
सपने

खुली आँखों से
या बंद पलकों में
कुछ पाने के
कुछ बनने के
आस पे देखे जाते हैं
सपने